Friday, June 30, 2017

आधुनिक जीवन शैली में योग का महत्‍व




अर्थप्रधान एवं अतिव्‍यस्‍त आधुनिक जीवन शैली अपनाने के कारण आज का मानव न चाहते हुए भी दबाव एवं तनाव, अविश्राम, अराजकता, रोग ग्रस्‍त, अनिद्रा, निराशा, विफलता, काम, क्रोध,लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्‍या तथा अनेकानेक कष्‍टपूर्ण परिस्थितियों में जीवन निर्वाह करने के लिए बाध्‍य हो गया है। जल, वायु, ध्‍वनि तथा अन्‍न प्रदूषण के साथ-साथ ऋणात्‍मक दुर्भावनाओं का भी वह शिकार बन चुका है। परिणामस्‍वरूप अनेकानेक शारीरिक रोगों के साथ-साथ मानसिक असंतुलन, चिंताएं, उदासी, सूनापन एवं दुर्भावनात्‍मक विचार उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। उसके मन की शान्ति भंग हो जाती है लेकिन इन परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ सामना करने के लिए हमारी भारतीय पौराणिक योग पद्धति सहायता कर सकती हैं।
तथ्‍य तो यह है कि मानव अस्तित्‍व का मुख्‍य उद्देश्‍य एक मात्र योग है। उसका प्रादुर्भाव योग में रहने के लि‍ए हुआ है। योग साधना को यदि अपने जीवन का अभिन्‍न अंग बना दि‍या जाए तो यह मानव की खोई हुई राजसत्ता की पुनर्प्राप्ति का आश्‍वासन देता है एवं पुन: अनन्‍त सत्‍य के साथ जीवन जीने की कला सिखाता है। योग स्‍वयं जीवन का संपूर्ण सद्विज्ञान है। योग हमारे सभी शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्‍मक कष्‍टों एवं रोगों से मुक्ति दिलाता है। यह परिपूर्णता एवं अखण्‍ड आनंद के लिए वचनबद्ध है।   
भगवान श्री कृष्‍ण श्रीमद्भागवत गीता में स्‍वयं योग की परिभाषा द्वितीय अध्‍याय के पचासवें श्‍लोक में देते हैं- ‘’योग: कर्मसु कौशलम्’’ अर्थात् कर्मों की कुशलता का नाम योग है।
महर्षि पतञ्जलिकृत योग-दर्शन में व्‍याख्‍या की गई है।
‘’योगश्चित्र वृत्ति निरोध:
चित्रवृत्तियों का नियंत्रण है। योग साधक अपने स्‍वरूप में स्थित हो जाता है योग अनुशासन का दूसरा नाम है।
म‍हर्षि पतञ्जलि का अष्‍टांग योग भौतिक उन्‍नति के साथ आध्‍यात्मिक विकास के लिए मन पर नियंत्रण की प्रेरणा देता है यह केवल हिमालय पर रहने वाले साधु-संतों, सन्‍यासियों के लिए ही नहीं, अपितु सभी गृह‍स्‍थि‍यों के लिए भी एक संमार्ग है। योग जीवन है एवं भोग मृत्‍यु है।
योग के मुख्‍य आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान एवं समाधि।
पांच यम हैं – अहिंसा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
पांच नियम हैं- शौच, संतोष, तप, स्‍वाध्‍याय एवं ईश्‍वर प्राणिधान
यम और नियम के पश्‍चात् अष्‍टांग योग तृतीय अंग है- आसन।
आसन  स्थिरसुखमासनम् ।
निश्‍चल सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है। साधक अपनी योग्‍यता के अनुसार जिस रीति से बिना हिले-डुले स्थिर-भाव से सुखपूर्वक बिना किसी पीड़ा के बहुत समय तक बैठ सके वही आसन उसके लिए उपयुक्‍त है। इसके अतिरिक्‍त जिस पर बैठकर साधन कि‍या जाता है, उसका नाम भी आसन है। बैठते समय सिर, गला एवं रीढ़ की हड्डी ये तीनों शरीर के भाग सीधे और स्थिर हों।
आसन – सिद्धि हो जाने पर शरीर पर सर्दी, गर्मी आदि द्वन्दों का प्रभाव नहीं पड़ता, शरीर में उन सबको बिना किसी प्रकार की पीड़ा के सहन करने की शक्ति आ जाती है। वे द्वन्द चित्त को चंचल कर साधन में विघ्‍न नहीं डाल सकते।
आसन वह शारीरिक मुद्रा है जिसमें शरीर की स्थिरता बढ़ती है, मन को सुख-शांति प्राप्‍त होती है और आसन की सिद्धि द्वारा ना‍डि़यों की शुद्धि, आरोग्‍य की वृद्धि, शरीर की स्फूर्ति एवं अध्‍यात्‍म में उन्‍नति होती है।
पंच तत्‍वों - आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्‍वी से निर्मित शरीर आसनों का अभ्‍यास करने से सदैव स्‍वस्‍थ रहता है। आंतरिक शाक्तियां जागृत होती हैं। सभी चक्र खुल जाते हैं। मन में एकाग्रता स्‍थापित होती है। शक्तिवर्धन के कारण साधक की कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है। जीवन के चहुमुंखी विकास एवं प्रत्‍येक कार्य में सफलता के लिए आसनों का अभ्‍यास अपनी महत्‍वपूर्ण भूमिका नि‍भाता है।
जीवन में कई बार प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण अनेक समस्‍याएं उत्‍पन्‍न होती हैं। उनका सामना करने की शक्ति साधक को प्राप्‍त होती है । 
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